मेहंदावल- बुनकारी पेशा से विमुक्त होते जा रहे हैं बुनकर तपका के लोग
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बुनकारी पेशा से विमुक्त होते जा रहे हैं बुनकर तपका के लोग !

बुनकरों के प्रति सरकार की विपरीत पॉलीसी !
सूत की महंगाई तथा महंगी बिजली है इसका मुख्य कारण
संतकबीर नगर- मेंहदावल

विकासखंड मेहदावल अंतर्गत अमरडोभा निवासी बुनकर नेता हाजी इमामुद्दीन अंसारी ने हमारे संवाददाता को बताया कि अब कहां रह गए हैं बुनकर,
बुनकर तबका के लोगों ने अलग-अलग व्यवसाय, मजदूरी आदि कार्यों को अपना कर बुनकरी पेशा से विमुक्त होकर अपना और अपने बाल बच्चों का पेट पालने पर लोग मजबूर हैं !
जनाब अंसारी ने आगे कहा कि ऐसी सूरत में लगभग लगभग बुनकरों का वजूद खत्म होने के कगार पर है,,,
अब चंद पावरलूम ही चालू हालत में यहां वहां वह भी टॉवल बनाने का ही कार्य पूरे मेंहदावल व अमरडोभा बुनकर आबादी वाले क्षेत्रों में मात्र 50 से 60 पावर लूम ही चालू हालत में देखे जा सकते हैं ! वह भी तैयार माल पिछले दो-तीन महीनों से डंप पड़ा हुआ है !

मेंहदावल निवासी नवयुवक बुनकर सरफराज अहमद अंसारी ने बताया कि एक चौके पर लागत ₹180 आता है जबकि इसकी बिक्री 195 रु, में होती है, यदि कारीगर से बुनाई पेशा कराया जाए तो कुछ भी बचता नहीं होगा , जब स्वंय मजदूरी किया जाता है तब 15 से ₹20 ही प्रत्येक चौके पर मिल पाता है,
अफसोस जाहिर करते हुए सरफराज अहमद ने कहा कि कैसे जीकोपार्जन चलेगा कुछ समझ में नहीं आता है, यदि साइड में कोई और कार्य न किया जाए तो परिवार के सदस्य भूखे मरने पर मजबूर हों जाऐंगे !

इसी कड़ी में मोहल्ला बारागद्दी निवासी गुलाम हुसैन जो अपने घर पर सांचे पर टॉवल लपेटते हुए नजर आऐ उन्होंने बताया कि 160 चक्कर सांचा चलाने पर एक पट्टा ताना बनता है,
कुल 10 पट्टा जब सांचे पर धागा लपेटा / बनाया जाता है तब एक भीम तैयार होती है, दिन भर एक भीम तैयार करने में लग जाया करता है, जिसकी मजदूरी मात्र ₹200 ही मिलती है , ऐसी सूरत में भरे पूरे परिवार का खर्चा नहीं चल पाता, ताना से भीम पर लपेटे जाने वाले मजदूर मोहम्मद अब्दुर्ररहीम व मोहम्मद हाशिम ने बताया कि जब हम दोनों सांचे से भीम पर धागा लपेटते हैं तो मजदूरी मात्र 70, 70 रुपया यानी 140 रुपया ही दोनों मजदूरों को प्राप्त हो पाता है,
ऐसे में खुद का पेट पालना तथा बच्चों का पेट पालना बहुत ही मुहाल रहता है !
फिर भी इस पेशे के एलावा और पेशा अपनाने का हुनर भी नहीं है!

भीम लपेटना मजबूरी है! इसी कड़ी में मकसूद अहमद बताते हैं कि 20 -25 वर्षों से रेडीमेड के कारोबार में लग गया हूं ,
बाप दादा करघा चलाते थे जिसमें उनका बचपन में हाथ बटाता था पूरी तरह से काम ना सीखने पर रेडीमेंड के कारोबार में तभी से लग गया हूं,
रेडीमेड की स्थिति भी वर्तमान समय में डावांडोल है , सिलाई मशीनों पर तैयार कराया गया माल डंप पड़ा हुआ है, माल की खरीदारी करने के लिए कोई व्यापारी आते ही नहीं हैं !
यूपी के बाहर मिल पर तैयार माल ही मार्केट में बिकता हुआ दिखता है, ऐसी सूरत में पावरलूम हो या रेडीमेड का कारोबार करने वाले हम जैसे बुनकर तबका के लोग काफी समस्याओं का सामना करने पर मजबूर हैं, फिलहाल जैसे तैसे उक्त कार्य में लगे हुए हैं, नमक-रोटी की व्यवस्था किसी प्रकार से हो जाती है !
